खुद की किताबों का सुकून
- Prashant Mahato (@prashantm.writes)
- Jan 12
- 1 min read
किताबें खरीदनी ज़रूरी हैं,
मांगी हुई उधार की किताबें
चिंता उत्पन्न करती हैं।
वो एक ऐसी ज़िम्मेदारी हैं
जो पढ़ते हुए भी महसूस होती है।
कहीं पन्ने फट न जाएँ,
किताब खो न जाए,
एक डर सा लगा रहता है,
और ये पाठक के लिए अच्छा नहीं है।
पढ़ना तो ऐसा होना चाहिए,
जैसे समुद्र में गोता लगाना।
ख़्यालों की नाव पर बैठ,
किताब रूपी समुद्र में जहाँ चाहें,
वहाँ गोता लगाया जा सके।
लहरों के समान पन्नों संग
बहा जा सके।
कुछ लहरें मुड़ भी सकती हैं,
पर मज़ा भी उसी में है।
ख़रीदी हुई किताबें आपकी आत्मा बन सकती हैं,
अपने साथ आपको आत्मसात कर सकती हैं।
जहाँ मर्ज़ी, वहाँ ले जा सकते हो,
जब मन किया, निकाल कर पढ़ लिया।
ख़रीदी हुई किताबें मुक्त करती हैं।
उन्हें संभाल कर रखना बोझ नहीं लगता।
नई ख़रीदी किताबों की ख़ुशबू भी
अलग आनंद प्रदान करती है।
खुद की किताबों का सुकून | कविता
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