कागज़ों के आईने में
शब्द रचित मायने में
मैं भला कैसा दिखूं,
सोचता हूं, क्या लिखूं।
शब्दों की माया अनूठी,
शब्दों की काया अनूठी,
हैं अनूठे भाव इनके,
हैं अनूठे दाँव इनके।
इनकी अपनी एक सृष्टि
इनकी अपनी एक दृष्टि।
इनके अपने ताव होते,
इनके अपने घाव होते।
होती इनकी अपनी गरिमा,
जिसके आगे ना दिखूं,
सोचता हूं, क्या लिखूं।
लिख गए जो लिखने वाले,
दिख गए वो लिखने वाले।
लिख सके, थे लिखने वाले,
दिख सके, थे दिखने वाले।
मैं ना शायद टिकने वाला,
क्या पता सब मिटने वाला।
फिर भला स्याही में गोते
बेवजह ही क्या भरूं,
सोचता हूं, क्या लिखूं।
सोचता हूं, लिख ना पाऊं,
क्यों जहां में दिखना चाहूं।
क्यों क़लम ना घिसना चाहूं।
कोरा | कविता
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